शुरुआती दौर में झारखंड अलग राज्य के आंदोलन का विरोध करने वाली भाजपा ने दस वर्ष पूर्व झारखंड अलग राज्य का गठन क्यों किया, इसको लेकर अलग-अलग तरह की मान्यताएं हैं. कुछ लोगों की समझ है कि अविभाजित बिहार की सत्ता पर काबिज होने की कोशिशों में असफल होने के बाद भाजपा ने अपने प्रभावित इलाके की सत्ता पर काबिज होने की नीयत से बिहार का विभाजन किया. कुछ की समझ है कि बहुदेशीय कंपनियों के हित साधन और खनिज संपदा की लूट का मार्ग प्रशस्त करने के लिए उन्होंने यह काम किया.
लेकिन झारखंड आंदोलन से जुड़े प्रबुद्ध नेताओं और झारखंडी जनता के दिमाग में अलग राज्य का लक्ष्य स्पष्ट था. और वह लक्ष्य था झारखंडी अस्मिता और संस्कृति की सुरक्षा, जिसके लिए सदियों से वह संघर्ष करती रही है, कुर्बानी देती रही है. क्या है यह झारखंडी अस्मिता और संस्कृति? सामाजिक क्षेत्र में जो वर्णाश्रम व्यवस्था से इतर वर्गविहीन, जातिविहीन, छूआछूत मुक्त, औरत-मर्द की बराबरी वाले समाज के रूप में प्रगट होता है तो आर्थिक क्षेत्र में जीवन के संसाधनों- जल,जंगल,जमीन- के सामूहक उपयोग के रूप में. यह सही है कि खुटखट्टीदारी व्यवस्था अब आदिवासी समाज में भी नहीं रही, लेकिन जमीन अभी भी नितांत व्यक्तिगत संपत्ति नहीं, गांव की संपत्ति ही है. उसके खरीद फरोख्त के पहले गांव की सहमति अनिवार्य है. राजनीतिक क्षेत्र में बहुमत व अल्पमत पर आधारित ‘लोकतंत्र’ की जगह सर्वानुमति के ‘स्वशासन’ के रूप में हम इस विशिष्ट पहचान को देख सकते हैं, तो कला और संस्कृति के क्षेत्र में अभिजात्य संस्कृति के मंच व दर्शक-दीर्घा की जगह एक खुले रंगमंच को हम देख सकते हैं जहां दर्शक और कलाकार में कोई फर्क नहीं रहता. क्योंकि यहां ‘चलना ही नृत्य है और बोलना ही गीत.’ और चलना और बोलना तो हर कोई जानता है.
आदिवासी और गैर आदिवासी समाज के फर्क को जमीन के साथ मनुष्य के संबंधों के आईने में बरबक्स देख सकते हैं. गैर आदिवासी समाज आदिम साम्यवादी व्यवस्था, सामंतवाद, राजशाही और लोकतंात्रिक व्यवस्था के दौर से गुजरा है और वहां जमीन किसान का नहीं होता. सामंतवादी व्यवस्था में जमीन सामंत का तो राजशाही के दौर में राजा का. लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी जमीन रखने वाले हर व्यक्ति को लगान देना पड़ता है. लेकिन आदिवासी समाज में जमीन उसकी होती है जो खेती के लिए जमीन को तैयार करता है. इसलिए आदिवासी समाज जमीन के लिए किसी तरह का टैक्स देने को तैयार नहीं. अपने इस हक के लिए उसने निरंतर संघर्ष किया है. तिलका मांझी, सिद्धो कान्हू, और विरसा मुंडा का संघर्ष अपने इसी नैसर्गिक आधिकार के लिए था और उन संघर्षों की ही परिणति जनजातीय क्षेत्र के लिए विशेष भू कानूनों के रूप में हम आज देख रहे हैं. अंग्रेजों द्वारा निर्मित उन कानूनों को आजाद भारत के संविधान में भी मान्यता दी गई और पेशा कानून के द्वारा उनके स्वशासन के अधिकार को और मजबूत बनाने की पेशकश हुई. लेकिन आदिवासीयत की मूल भावना को सैद्धांतिक रूप से स्वीकार करने के बावजूद उसे जमीन पर उतारने की कोशिश नहीं हुई, उसी तरह जिस तरह वन कानून सरकार ने बनाया तो जरूर लेकिन उसे राज्य में लागू नहीं किया जा सका है. उम्मीद थी कि अलग राज्य के रूप में गठन के बाद झारखंड में आदिवासी समाज के इस वैशिष्ट को अक्षुण्य रखने की कोशिश होगी. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. अलग राज्य के नाम पर सत्ता का एक और केद्र विकसित हो गया जहां राजनीतिज्ञों, अधिकारियों व ठेकेदारों के लिए लूट का तो अपार अवसर है, लेकिन झारखंडी जनता की स्थिति पहले से बद्तर होती जा रही है. सरकारी आंकड़ों की ही बात करें तो 45 फीसदी से अधिक लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर कर रहे हैं. एक बड़ी आबादी मलेरिया और तपेदिक जैसी बीमारियों से आक्रांत है. आदिम जनजातियों में से कई मिटने के कगार पर हैं. आजादी के आस पास राजमहल की पहाड़ियों में बसे पहाड़िया आदिवासियों की संख्या ढाई लाख के करीब थी, जो घट कर 65-70 हजार के करीब पहुंच गई है. जैसे जैसे राजमहल के पहाड़ कट रहे हैं, वैसे-वैसे पहाडियां आबादी भी घटती जा रही है. विकास की चालू अवधारणा के हिसाब से प्राकृतिक संसाधनों और अपार खनिज संपदा के बावजूद झारखंड विकास के निचले पायदानों में कही है.
और यह सब तब हो रहा है, जब राज्य का वार्षिक बजट लगातार बढ़ते बढ़ते 22 हजार करोड़ को पार कर चुका है. अविभाजित बिहार में, यानी आज से लगभग दस वर्ष पूर्व बिहार के कुल बजट में महज हजार बारह सौ करोड़ का हिस्सा दक्षिण बिहार को मिलता था. लेकिन बजट में इस विशाल बढोत्तरी का फायदा राज्य की जनता को नहीं मिलता. इसकी एक प्रमुख वजह तो यह कि वजट की कुल राशि का पचास फीसदी से भी अधिक गैर योजना मद, यानी, मंत्रियों, विधायकों, अधिकारियों और राज्य के सरमारी कर्मचारियों के वेतन सुविधाओं पर खर्च होता है और शेष बची राशि योजना मद, यानी विकास योजनाओं पर खर्च होता है. इस वर्ष गैर योजना मद की राशि 11993 करोड़ 18 लाख रुपये है जबकि योजना मद की राशि 10304 करोड़ 41 लाख रुपये है. होता यह भी है कि गैर योजना मद की राशि तो शत प्रतिशत खर्च हो जाती है, लेकिन योजना मद की राशि खर्च नहीं हो पाती और जितनी खर्च होती है, उसका बड़ा हिस्सा लूट खसोट की भेंट चढ जाता है. इसके लिए किसी प्रमाण की जरूरत नहीं. पिछले दस वर्षों में राज्य के विकास के नाम पर क्या कुछ हुआ, इसकी पड़ताल हम नंगी आंखों से कर सकते हैं. जन हित का कोई एक काम भी सरकार ने ऐसा किया हो, जिस पर गर्व किया जा सके, नहीं दिखता. हां, बढी हुई वेतन सुविधाओं और विकास मद की राशि के लूट खसोट से अर्जित संपत्ति के बदौलत गिने चुने शहरों में रिहायशी कालोनियां बन रही हैं, राज्य के खस्ताहाल सड़कों पर बेशुमार कीमती गाड़ियां दौड़ती नजर आने लगी हैं. लेकिन उनसे परे विपन्नता का वही महासागर, कुपोषित बच्चे, एनीमिया पीड़ित औरतें. आदिवासी अपने शारीरिक शौष्ठव के लिए जाने जाते थे, लेकिन अब गांवों में ऐसे औरत मर्द दिखते ही नहीं.
लेकिन राजनेताओं का पेट इतने से नहीं भरा. आदिवासियों-मूलवासियों के विकास के लिए बने बजट का बड़ा हिस्सा चट कर जाने के बाद भी उनकी हवस खत्म नहीं हुई. अब वे राज्य की खनिज संपदा, प्राकृतिक संसाधन- जल, जंगल, जमीन- बेचने में जुट गये हैं. बाबूलाल मरांडी से लेकर अब तक के तमाम मुख्यमंत्रियों में अनेक भिन्नता है. बाबूलाल मरांडी और अर्जन मुंडा एनडीए के मुख्यमंत्री थे, मधु कोड़ा यूपीए के और शिबू सोरेन भाजपा झामुमो गठबंधन के, लेकिन राज्य के विकास की उनकी दृष्टि एक जैसी है. सभी बहुदेशीय निजी कंपनियों के साथ एमओयू कर राज्य में कल कारखानों का जाल बिछाना चाहते हैं. अब तक घोषित रूप से सैकड़ो एमओयू हो चुके हैं. अघोषित रूप से भी चोरी छिपे लौह अयस्क और कोयले का पट्टा बेचा जा रहा है. जनता के प्रबल विरोध की वजह से इक्का दुक्का एमओयू को छोड़ कोई जमीन पर नहीं उतरा है. हालांकि झारखंड की सरकार और उसकी प्रशासन-पुलिस कंपनियों का लठैत बन कर झारखंडी जनता का दमन करने के लिए मैदान में उतर चुकी है. तपकारा में यदि बाबूलाल मरांडी ने गोली चलवाई तो काठीकुंड में शिबू सोरेन ने. लेकिन सरकारी दमन के बावजूद जनता झुकने को तैयार नहीं. इसलिए अब सीएनटी एक्ट जैसे विशेष कानूनों के संशोधन पर ही बहस शुरु हो गई है.
बाबूलाल मरांडी ने अपने मुख्यमंत्रीत्व काल में छोटा नागपुर संथाल परगना टीनेंसी एक्ट में संशोधन की बात की थी. उनका कहना था कि आदिवासी जनता को यह अधिकार होना चाहिए कि वह अपनी जमीन बेच सके. शिबू सोरेन के मुख्यमंत्री बनने के बाद भी इस तरह की बातें हो रही है. उन्होंने भी कहा है कि झारखंड के विशेष भू कानूनों में संशोधन होना चाहिए.
दरअसल यह बात सुनने में अच्छा लगता है. खेती को अलाभकारी बताया जा रहा है. वैसे में आदिवासी अपनी भूमि बेच सके तो वह भी पैसा बना सकता है और उस पैसे से बेहतर जीवन बसर कर सकता है. लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि जमीन की बेहतर कीमत शहर के आस पास होती है. सुदूर ग्रामीण इलाकों में जमीन की वह कीमत नहीं मिलने वाली. और एक बार आदिवासी जमीन खरीद फरोख्त के लिए उपलब्ध हो गया तो सबसे पहले गांव गांव में बैठे महाजनों के हत्थे चढ जायेगा. ऐसा इतिहास में कई बार हो चुका है. सिद्धो कान्हू का ‘हूल’ महाजनों के कब्जे से अपनी जमीन की मुक्ति का ही संघर्ष था, बिरसा का ‘उलगुलान’ उसी क्रम का अगला संघर्ष. सत्तर के दशक में खुद शिबू सोरेन महाजनों से आदिवासियों के जमीन की मुक्ति का संघर्ष कर चुके हैं. आदिवासी नैसर्गिक रूप से अपनी जमीन से बंधा हुआ है. जंगल उससे छिन चुका. उसके क्षेत्र से गुजरने वाली नदियां औद्योगीकरण से होने वाले प्रदूषण और बड़ी बड़ी सिंचाई-विद्युत परियोजनाओं की भेंट चढ चुकी हैं. एक बार जमीन उसके हाथ से निकला नहीं कि वह दर दर का भिखाड़ी हो जायेगा और उसका अस्तित्व ही मिट जायेगा. कोई शक हो तो हमें एचईसी, बोकारो स्टील जैसे कारखानों से होने वाले विस्थापितों की स्थिति पर गौर करना चाहिए.
जरूरत इस बात की थी कि सरकार खेती को समुन्नत करने के उपाय करती. सिंचित क्षेत्र का बिस्तार करती. जंगल को कटने से बचाती और प्रदूषित नदियों को प्रदूषण से मुक्त करती. भूमिगत जल स्तर जो निरंतर जमीन के अंदर भागता जा रहा है, उसे रोकने की योजनाएं बनाती. झारखंड की धरती वैध-अवैध खुले खनन से विरूपित होती जा रही है. बंजर परती जमीन का निरंतर बिस्तार हो रहा है. इन सबका मारक प्रभाव जल, जंगल, जमीन पर निर्भर आदिवासी समाज पर पर रहा है.
लेकिन झारखंड के नेताओं को इसकी चिंता नहीं. झारखंड बनने के बाद से ही वे इसे लूटखंड बनाने की कोशिशों में लग गये थे और आज झारखंड की पहचान देश के भ्रष्टतम राज्य के रूप में है. इन सब का ही परिणाम यह भी है कि राज्य में उग्रवाद का निरंतर बिस्तार हो रहा है. झारखंड बनने के पहले इसके कुछ जिले उग्रवादियों के प्रभाव में था, आज लगभग सभी जिले उग्रवाद से आक्रांत है. राज्य सरकारें जन आकांक्षाओं को पूरा करने में न सिर्फ असफल रही है, उल्टे वह बहुराष्ट्रीय कंपनियों की दलाल बन चुकी है. हालात इस कदर बिगड़ चुके हैं कि उग्रवाद से निबटने के लिए झारखंड को एक तरह से सेना के हवाले किया जा रहा है. ग्रीन हंट को आप और क्या कहेंगे?
लेकिन ग्रीन हंट अभियान वास्तव में उग्रवादियों से निबटने के लिए है? क्या माओवादी उनकी गिरफ्त में आने के लिए यहां के जंगलों में बैठे रहेंगे? नेपाल की तराई से बिहार, झारखंड, ओड़ीसा होते हुए आंध्र प्रदेश तक की हरी पट्टी उनकी शरणस्थली है. यहां अभियान तेज हुआ तो वे वहां चले जायेंगे. मारी जाने वाली है झारखंडी जनता. शांतिपूर्ण संघर्ष तरीके से अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले लोग. सिविल क्षेत्र में सेना या अर्द्धसैनिक बलों की तैनाती का अर्थ क्या है, यह किसी से छिपा नहीं हैं. कुछ लोगों की साफ समझ है कि यह अभियान बहुदेशीय कंपनियों की मदद के लिए चलाया जा रहा है ताकि जमीन अधिग्रहण के विरोध में चलने वाले शांतिपूर्ण आंदोलनों को भी उग्रवाद से निबटने के नाम पर कुचला जा सके.
इसका आशय यह नहीं कि उग्रवाद से निकटा नहीं जाये. लेकिन जैसा कहते हैं, वैसा करने की कोशिश तो कीजिये. हर प्रबुद्ध नेता और अधिकारी यह सिद्धांततः मानता है कि उग्रवाद सिर्फ कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं, विकास की समस्या है. तो राज्य के विकास के लिए, आदिवासी मूलवासी जनता के जीवन को सुगम बनाने के लिए आपने अब तक किया क्या है? विकास के नाम पर इन दस वर्षों में अरबों रुपये खर्च हुए, लेकिन गांव में सड़के नहीं, पानी बिजली नहीं, स्वास्थ केंद्र है तो डाक्टर नहीं, स्कूल है तो टीचर नहीं. पंचायती व्यवस्था पूरे देश में लागू हो गई, झारखंड में अब जा कर चुनाव तो हुए, लेकिन उनके प्रावधानों को जमीन पर उतारा नहीं जा सका है. फर्जी ग्राम सभाओं की मदद से फर्जी व अनुपयोगी योजनायें बनती हैं और योजना राशि को सब मिल कर लूट खाते हैं. इसलिए गांवों की तस्वीर जरा भी नहीं बदलती और अपनी सरकार और अपने नेताओं से नाउम्मीद जनता आसानी से उग्रवादियों के झांसे में आ जाती है. हो सकता है कि ग्रीन हंट जैसे अभियान से उग्रवाद को कुछ दिनों के लिए काबू में कर लिया जाये, लेकिन जब तक जनता का असंतोष बना हुआ है, तब तक स्थाई रूप से उसका खात्मा नहीं होने वाला.