झारखंड के तमाम नेता, राजनीतिक दल और उनके चेला चपाटी झारखंड राज्य का सुख भोग रहे हैं, वह झारखंड कितनी भीषण कुर्बानियों के बाद हासिल हुआ था, इसका एहसास आज किसी को नहीं है. आजादी मिलने के महज साढ़े चार महीने बाद आदिवासी जनता को देशी हुक्मरानों और उसकी पुलिस ने आजादी का जो स्वाद चखाया था, यह अब बहुत कम लोगों को याद रह गया होगा. आज की युवा पीढ़ी, सत्ता लोलुप जमात जिस तरह राष्ट्रीय राजनीति का पिछलग्गु बनने को तैयार बैठी है, उन्हें इस बात की रत्ती भर समझ नहीं कि राष्ट्रीय राजनीति की नजर में आदिवासी कितना तुक्ष्य प्राणी है.
वरना इतिहास में जिस तरह ‘जलियांवाला बाग’ लोमहर्षक घटना के रूप में दर्ज है, वैसी ही भीषण घटना के रूप में ‘खरसावां गोली कांड’ भी दर्ज होता. जिस तरह एक अंग्रेज जल्लाद जेनरल डायर के खिलाफ मुकदमा चलाकर उसे सजा दी गई, उसी तरह खरसावां गोली कांड के लिए जिम्मेदार लोगों को भी सजा दी जाती. लेकिन यहां तो हालत यह है कि इस गोलीकांड में मारे गये लोगों को शहीद का दर्जा भी देने के लिए न तो केंद्र सरकार तैयार हुई, न बिहार सरकार और झारखंड राज्य का सुख भोगने वाले राजनेता. इस गोली कांड में सरकारी जानकारी के अनुसार ही कम से कम तीन दर्जन आदिवासी मारे गये, और गैरसरकारी सुत्रों के अनसार हजार से ज्यादा लोग, लेकिन इस जघन्य गोली कांड की तो एफआईआर तक दर्ज नहीं हुई, न किसी तरह की जांच-पड़ताल.
यही तो मांग है खरसवां-सरायकेला के आदिवासियों की, शहीदों के परिजनों की. सरकार इस गोलीकांड का एफआईआर दर्ज करे. इसकी निष्पक्ष जांच करे. इस घटना के बारे में जो ब्योरा दर्ज है, उसे सार्वजनिक करे. मृतकों की वास्तविक संख्या का पता लगाये. मृतकों को शहीद का दर्जा दे. और इस घटना के लिए जिम्मेदार लोगों को सजा दे. इन्हीं मांगों को लेकर पिछले छह दशकों से मृतकों के परिजन और उस क्षेत्र की जनता एक जनवरी को, जबकि पूरा देश नये वर्ष के जश्न में डूबा होता है, अपने शहीदों का ‘दुल सुनुम’ यानी, श्राद्ध मनाती है.
घटना की पृष्ठभूमि
यह बात आदिवासी समाज के इतिहासकार अच्छी तरह जानते हैं कि आदिवासी समाज में राजे, रजवाड़े नहीं होते. उनके स्वशासन की अपनी परंपरा है. लेकिन इतिहास के एक दौर में कुछ बहिरागत इस इलाके में आये और खुद को स्वयंभू राजा घोषित कर दिया. सरायकेला और खरसावां राज घरानों की भी यही कहानी है. ओड़िसा से कुछ राजपूत सिंहभूम इलाके में आये. उस जमाने में पूरा इलाका जंगल से आच्छादित था. जमीन की कोई कमी नहीं थी. तो, इन राजपूत परिवारों ने छल-प्रपंच या ताकत के जोर पर आदिवासी इलाको पर दखल कर लिया और दो राजघराने खड़े हो गये- खरसवां और सरायकेला. जब अंग्रेज आये तो उन्होंने इन्हें अपना एजंट बना लिया और एक तरह से इन्हें राजा मान लिया. इसके खिलाफ किस तरह आदिवासी जनता ने संघर्ष किया, यह सर्वविदित है.
खैर, आजादी के तुरंत बाद इन राज घरानों का विलय भारतीय गणतंत्र में हो गया. लेकिन जब अलग राज्य का गठन होने लगा तो विवाद नये सिरे से उठ खड़ा हुआ. खरसावां और सरायकेला के राजघराने तो इस इलाके को ओड़ीसा में शामिल करना चाहते थे, लेकिन आदिवासी जनता – हो, भूमिज, मुंडा, संथाल, अन्य मूलवासी, इसे बृहद झारखंड का हिस्सा बनाना चाहती थी. साईमन कमीशन के सामने इस मांग को आजादी के पहले पेश किया गया था. और 1 जनवरी 1948 को इसी मांग के समर्थन में खरसावां के एक मैदान में, जहां हाट भी लगा करती है, एक विशाल जनसभा का आह्वान किया गया. हजारों की संख्या में आदिवासी जनता वहां जुटी और जब जनसभा खत्म होने चली थी, तब वहां मशीन गन से अंधाधुंध गोलियां चलाई गई. कितने लोग मारे गये, इसको लेकर अलग-अलग दावे हैं.
ओड़ीसा सरकार के अनुसार 32 लोग मारे गये.
बिहार सरकार के अनुसार 48 लोग मारे गये.
गैर सरकारी सूत्रों के अनुसार हजार लोग मारे गये. जयपाल सिंह मुंडा के अनुसार कम से कम एक हजार लोग मारे गये.
घटना के दिन की कुछ महत्वपूर्ण बातें
इस जनसभा का आह्वान जयपाल सिंह मुंडा ने किया था, लेकिन वे खुद उस जनसभा में नहीं आये.
इस जनसभा के दो सप्ताह पूर्व 18 दिसंबर 1947 को ओड़ीसा सरकार ने अफसरों की एक टीम के साथ मिलिट्री पुलिस की तीन कंपनियां सरायकेला और खरसावां में तैनात कर दी थी. उनके पास ब्रेन गने थीं.
1 जनवरी 1948 को, यानी, देश की आजादी के महज साढ़े चार महीने बाद यह घटना घटित हुई.
डस दिन चक्रधरपुर, रांची, चाईबासा, करनडीह, परसुडीह, बुंडु, तमाड़ आदि इलाकों से पारंपरिक हथियारों, ढोल-नगाड़ों के साथ लोग खरसावां के उक्त मैदान में जमा हुये थे.
कुछ लोगों का कहना है कि सभा समाप्त होने के बाद कुछ लोग राजा के महल की तरफ ज्ञापन देने के लिए जाना चाहते थे. पुलिस ने उन्हें रोका. और तकरार बढ़ी और फिर ब्रेन गनों से गोलियों की बरसात होने लगी. भीड़ में भगदड़ मच गयी. लोग भागने लगे, लेकिन गोलियां चलती रही.
कहते हैं, घिरते अंधेरे में सैन्य पुलिस के जवानों और अधिकारियों ने मृतकों को जहां तहां जंगलों में फेंक दिया. हाट में एक कुआं था. उसे लाशों से पाट कर रातों रात उसे सीमेंट से बंद कर दिया गया.
घयलों का इलाज करने के लिये चिकित्सकों को वहां पहुंचने नहीं दिया गया.
भीषण गोलीबारी के निशान जंगल के दरख्तों पर बहुत समय तक बने रहे.
लेकिन घटना की किसी तरह की जांच-पड़ताल की जरूरत नहीं समझी गई.
ज्लियावाला बाग की घटना की जांच के लिए अंग्रेज सरकार और कांग्रेस पार्टी ने अलग-अलग कराई. लेकिन आजाद भारत के इस जघन्य कांड की जांच की जरूरत किसी ने नहीं समझी.
हर वर्ष यही मांग लेकर खरसावां के उस शहीदी स्थल पर खरसावां की जनता और मृतक परिवारों के परिजनें जमा होते हैं और अपने शहीदों का श्राद्ध कर्म करते हैं. इस वर्ष भी, जब लोग नये वर्ष के स्वागत का जश्न मना रही होगी, उस वक्त खरसावां के शहीदी स्थल पर शहीदों के परिजन और जन संगठनों के साथी इकट्ठा होंगे और उन लोगों को याद करेंगे जिन्होंने अलग राज्य के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी और उनके नारों को दोहरायेंगे-
‘‘दिकू राज कबुआ’’
‘‘झारखंड राज अबुआ.’’
-विनोद कुमार
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