पता नहीं यह किसका कहा हुआ सूत्र वाक्य है – जो हम डिजर्व करते हैं, वही हमे मिलता है. मोदी जी को सुनते हुए यह एहसास तीव्र होता है कि इस देश को ठीक वैसा ही प्रधानमंत्री मिला है, जैसा यहां के लोग डिजर्व करते हैं. कोरोना से पूरी दुनिया आक्रांत है. कतिपय कारणों से हमारे देश में यह तमाम तरह की लापरवाहियों के बावजूद विकराल रूप में अब तक प्रकट नहीं हुआ है. लेकिन संकट तो बरकार है. और सामान्य से सामान्य बुद्धि विवेक वाला आदमी इस बात को समझ सकता है कि इस भीषण संकट का मुकाबला टोटकों से नहीं हो सकता, इसका मुकाबला तो वैज्ञानिक तौर तरीको से ही हो सकता है. सफाई, संक्रमण होने पर समुचित इलाज, संक्रमण दूसरे में न फैले, इसके लिए समुचित उपाय आदि. जमीनी हकीकत यह है कि हमारे यहां इस फ्रंट पर लड़ने वाले डाक्टरों, नर्सो और सफाईकर्मियों के लिए जरूरी सुरक्षा उपकरण नहीं, मास्क तक की कमी है, अस्पतालों में वेंटीलेटर की नितांत कमी, लेकिन हमारे प्रधानमंत्री टोटकों से इसका मुकाबला करते दिख रहे हैं और पूरे आत्मविश्वास से जनता को भी इन टोटकों पर विश्वास करने की सलाह दे रहे हैं. अपने पिछले संबोधन में उन्होंने ताली, थाली, शंख आदि बजाने की सलाह दी थी और अपने कल के संबोधन में निर्धारित समय पर दीप, मोबाईल या टार्च जलाने की सलाह दी है. अब सिर्फ मंगल गीत गाने की सलाह रह गयी है.
विडंबना यह कि लोगों को इस पर विश्वास भी है. क्योंकि कोरोना से लड़ने की इस मूढ़तापूर्ण टोटकों को मोहक शब्दावली के साथ पेश किया गया है और जोड़ा गया है- अंधकार से प्रकाश की तरफ जाने का संघर्ष, एक बड़े संकट से मिलजुल कर लड़ने का संकल्प आदि. लेकिन क्या वास्तव में इन टोटकों से कोरोना से लड़ने में हमे मदद मिलने जा रही है? क्या ये टोटके हमें अंधविश्वास के महा अंधकार की तरफ ही और नहीं ढ़केलने वाले हैं?
हम सामान्यतः मान कर चलते हैं कि बहुसंख्यक आबादी साक्षर तो है, लेकिन शिक्षित नहीं और तरह तरह के अंधविश्वासों में फंसी हुई है. लेकिन क्या हमारा शिक्षित वर्ग, बौद्धिकों की जमात अंधविश्वासों से मुक्त है? मूढ़ता तो हमारी राष्ट्रीय पहचान बन चुकी है. हमारे गृहमंत्री युद्धक विमान खरीदने और लाने जाते हैं तो विमान के चक्कों के नीचे नींबू रखते हैं. आंतरिक्ष वैज्ञानिक अपने अभियान के पहले मंदिर जाकर मत्था टेकते हैं, हर महत्वपूर्ण कार्य के पहले नारियल फोड़ना जरूरी माना जाता है, राजनीतिक दलों के अधिकतर नेता चुनाव अभियान शुरु करने के पहले धार्मिक स्थलों के चक्कर लगाते हैं.
लेकिन क्या वास्तव में बौद्धिक जमात या समाज का प्रभु वर्ग इतना ही मूढ़ है जितना दिखता है? डाक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर, शिक्षक, उच्च शिक्षण स्ंसथानों में पढ़ने वाले और पढ़ाने वाले मूढ़ता का सार्वजनिक प्रदर्शन करते वास्तव में मूढ़ हैं? अंधविश्वास के शिकार हैं? मोदी के बताये टोटकों पर विश्वास करते हैं? दरअसल, कुछ तो वास्तव में पढ़ लिख कर भी मूढ़ होते हैं और कुछ मूढ़ता का नाटक करते हैं. उन्हें जिस तरह मनुवाद से, वर्ण व्यवस्था के वर्तमान स्वरूप से, भाग्यवादी जीवन दर्शन से शोषण और विषमता पर आधारित इस व्यवस्था को बनाये रखने में मदद मिलती है, उसी तरह अंधविश्वास और टोटकों पर बनाये रखने से भी. इसलिए समाज का प्रभु वर्ग सचेतन ढंग से इस मूढ़ता को ग्लोरीफाई करता है और बहुसंख्यक आबादी का रोल माॅडल बनता है, भले ही वह खुद इस पर यकीन करे न करे.
यह बात भी समझने की है कि सामाजिक विसंगतियां, कुव्यवस्था और भ्रष्टाचार जैसे मामले जहां सत्ता के प्रति आक्रोश पैदा करते हंै, वही अंधविश्वास और टोटके इस आक्रोश को कम कर आम जनता के बीच के वर्गीय विषमताओं को पाट कर जोड़ने का काम करता है. मोदी की ताकत दरअसल भाजपा समर्थक वोटर हैं, लेकिन जब इस तरह के टोटके आजमाये जाते हैं तो पूरा विपक्ष भी धाराशायी हो जाता है. क्या मोदी के कल रात के आह्वान का झामुमो, कांग्रेस या अन्य विपक्षी दल के कैडर विरोध कर मूढ़ता के दीपोत्सव में शामिल नहीं होंगे? मुझे लगता है, होंगे. राजनीतिक चेतना को अंधविश्वास और टोटकों का कुहासा ढक लेगा.
कल बालकोनियों वाले फ्लैटों और बहुमंजिली इमारतों में तो नौ मिनट का दीपोत्सव होगा ही, जो बहुमंजिली इमारतों में नहीं रहते, वे भी इस भेड़ चल में शामिल होंगे. और ऐसी जनता के लिए मोदी एकदम फिट प्रधानमंत्री हैं.